Saturday, May 23, 2015

आलोचना

आलोचना
 एक ऐसा
वाणी वाण है
जो ंबहुतं
धीरे धीरे
जख्म बनाता है और
वो जख्म एक दिन
नासूर बन जाता है
और आलोचक
सोचता है कि
आलोचना करना
मात्र उसी को आता है
बाकी सब जन
आलोचना के अरी हैं
मात्र वो स्वयं ही
उसका सगा भ्राता है
परन्तु जब वो
सोचनीय अवस्था से
जाग्रत अवस्था में
आता है तो
देखता है कि
वो जिसकी आलोचना
कर  रहा था
वो तो स्वस्थ्य और
सुदृढ़ है परन्तु
वो स्वयं नीचता को
प्राप्तं करके
समाज कि दृष्टि में
कमीना ,कंजर ,कुलच्छना
निम्न स्तर का
व्यक्तिं बन जाता है
और जो जख्म
दूसरों को देना चाहता था
उस जख्म का
स्वयं भागीदार
बन जाता है
फिर सम्पूर्ण जीवन
कीड़े मकोड़ों जैसा
जीवन यापन करता हुआ
अधोगति को प्राप्त कर
नरक कुण्ड में
समा जाता है |